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Wednesday, August 17, 2011

बगावत

दिल में अजीब सी बेचैनी है, जैसे चिंगारी-सी दहक रही हो.

हाँ, चिंगारी ही है, पर डर है कि ज्वाला न बन जाए.

डर है कि इसी ज्वाला में जलके कहीं मैं राख न हो जाऊं.

आखिर क्या वजह है, पूछता हूँ मैं खुद ही से.

आखिर क्यों हो चली है आग, लपटें सुलगाने को?

पूछता हूँ, पुकारता हूँ, चीखता-चिल्लाता हूँ.

पर कमबख्त चुप है. न जाने, शायद खफ़ा है मुझसे.



अब जो बैठा हूँ तनहाई  में, अमन की आड़ में,

हँसी  छूट जाती है. शायद ख़बर है मुझे,

शायद पता है क्यों बगावत है दिल में.

खुद ही से भाग रहा था, आवाज़ कहाँ सुनाई देती?

दिल तो गला फाड़े रो रहा था, मैंने ही खिड़कियाँ बंद कर रखी थी.

आज खिड़कियाँ खोल दी है मैंने.

पर आज जो खिड़कियाँ खोली है मैंने, ए मालिक.

ज़ालिम, दिल ने ही मूंह फेर लिया है.

2 comments:

MJ said...

interesting.. but abrupt end..

Ankur said...

Thanks Mehul! Could not think of another way to end, given my limited experience. :D

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